सिवनी/केवलारी। केवलारी के समीपस्थ ग्राम परासपानी में श्रीमद् भागवत कथा का आयोजन किया गया है। कथा विश्राम दिवस पर व्यासपीठाधीपति जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज के कृपा पात्र शिष्य श्री ब्रह्चारी निर्विकल्प स्वरूप महाराज ने कथा विश्राम दिवस में कहा कि मूर्खों से दोस्ती नहीं करना चाहिए इनसे हमेशा दूर रहना चाहिए। दोस्ती करना है तो श्रीकृष्ण के समान से ही होना चाहिए। जो अपने बाल्यकाल जीवन के गरीब ब्राह्मण सुदामा की दीन दशा को भलीभांति जान करके अपने समान संपूर्ण बनाया। बीते 7 दिवस से चल रही श्रीमद्भागवत कथा में व्यासापीठाधीपति ब्रह्मचारी श्री निर्विकल्प महाराज ने श्रीमद् भागवत कथा का प्रकट होने के महत्व से लेकर कथा के विश्राम तक के सभी अध्यायों का विस्तार से वर्णन किया।
महाराजश्री ने कहा कि श्रीमद्भागवत कथा के श्रवण या कथा स्थल पर आकर प्रसादी ग्रहण करने मात्र से ही मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं । सुंदर स्पष्ट परिभाषित श्रीमद् भागवत कथा के उच्चारण में मुख पर श्री सरस्वती जी कि बीणा युक्त भाषा से 7 दिनों तक क्षेत्र में आनंद प्राप्त हुआ। व्यासापीठाधीपति ब्रह्मचारी ने भगवान श्री कृष्ण के निजधाम गमन एवं यदुवंशियों की आपस में ही लड़कर वंश नाश का वर्णन किया बताएं कि कुरुक्षेत्र युद्ध के 35 साल बाद जामवंती के पुत्र साब ने स्त्री का रूप रखकर ऋषि विश्वामित्र , दुर्वासा ,वशिष्ठ ,और नारद से मिलने गया और पूछा कि मैं गर्भवती हूं बताएं मेरे गर्भ से कौन जन्म लेगा, दिव्यदृष्टा ऋषि मुनियों ने समझ गये कि यह चंचलता दिखा रहा है उन्होंने श्री कृष्ण पुत्र साब को श्रापित किया कि धातु की तीर का जन्म होगा और इसी तीर से कुल और साम्राज का नाश हो जाएगा।
सांब ने ये सारी घटना उग्रसेन को बताई, उग्रसेन ने सांब से कहा कि वे लोहे के तीर का चूर्ण बनाकर प्रभास नदी में प्रवाहित कर दे, इस तरह उन्हें उस श्राप से छुटकारा मिल जाएगा। सांब ने सब कुछ उग्रसेन के कहे अनुसार ही किया। साथ ही उग्रसेन ने ये भी आदेश दिया कि यादव राज्य में किसी भी प्रकार की नशीली सामग्रियों का ना तो उत्पादन किया जाएगा और ना ही वितरण ! इस घटना के बाद द्वारका के लोगों ने विभिन्न अशुभ संकेतों का अनुभव किया। सुदर्शन चक्र कृष्ण के शंख, उनके रथ और बलराम के हल का अदृश्य हो जाना, अपराधों और पापों में बढ़ोत्तरी होना, लाज-शर्म जैसी चीजों का समाप्त हो जाना। चारों ओर अपराध, अमानवीयता और पाप का साया था।
बुजुर्गों और गुरुओं का असम्मान, निंदा, द्वेष जैसी भावनाओं में उल्लेखनीय बढ़त आदि सब द्वारका के लोगों का जीवन बन गया था। ये सब देखकर भगवान कृष्ण परेशान हो गए और उन्होंने अपनी प्रजा से प्रभास नदी के तट पर जाकर तीर्थ यात्रा कर अपने पापों से मुक्ति पाने को कहा। सभी ने ऐसा ही किया। परंतु जब सभी यादव प्रभास नदी के किनारे पहुंचे तो वहां जाकर सभी मदिरा के नशे में चूर होकर, भोग-विलास में लिप्त हो गए। मदिरा के नशे में चूर सात्याकि कृतवर्मा के पास पहुंचा और अश्वत्थामा को मारने की साजिश रचने और पांडव सेना के सोते हुए सिपाहियों की हत्या करने के लिए उसकी आलोचना करने लगा। वही कृतवर्मा ने भी सात्याकि पर आरोप मढ़ने शुरू कर दिए। बहस बढ़ती गई और इसी दौरान सत्याकि के हाथ से कृतवर्मा की हत्या हो गई।कृतवर्मा की हत्या करने के अपराध में अन्य यादवों ने मिलकर सात्यकि को मौत के घाट उतार दिया। जब कृष्ण को इस बात का पता चला तो वे वहां पर प्रकट हुए और एरका घास को हाथ में उठा लिया। ये घास एक छड़ में परिवर्तित हो गई जिससे श्रीकृष्ण ने दोषियों को सजा दी।मदिरा के नशे में चूर सभी ने घास को अपने हाथ में उठा लिया और सभी के हाथ में मौजूद वो घास लोहे की छड़ बन गई। जिससे सभी लोग आपस में ही भिड़ गए और एक-दूसरे को मारने लगे। वभ्रु, दारुक और भगवान कृष्ण के अलावा अन्य सभी लोग मारे गए। यदुवंश के नाश के बाद कृष्ण के ज्येष्ठ भाई बलराम समुद्र तट पर बैठ गए और एकाग्रचित्त होकर परमात्मा में लीन हो गए। इस प्रकार शेषनाग के अवतार बलरामजी ने देह त्यागी और स्वधाम लौट गए।
लोहे की छड़ का चूर्ण एक मछली से निगल लिया और वह उसके पेट में जाकर धातु का एक टुकड़ा बन गया। जीरू नामक शिकारी ने उस मछली को पकड़ा और उसके शरीर से निकले धातु के टुकड़े को नुकीला कर तीर का निर्माण किया। कृष्ण वन में बैठे ध्यान में लीन थे। जीरू को लगा वह कोई हिरण है, उसने कृष्ण पर तीर चला दिया जिससे श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई। कुछ समय बाद अर्जुन मदद लेकर द्वारका पहुंचे और कृष्ण की मृत्यु की खबर पाकर अत्यंत दुखी हो गए। कृष्ण के जाने के बाद द्वारका में उनकी 16000 रानियां, कुछ महिलाएं, वृद्ध और बालक की शेष रह गए। वे सभी इन्द्रप्रस्थ के लिए रवाना होने लगे। इसके बाद उस क्षेत्र में सभी देवता और स्वर्ग की अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि आए और उन्होंने श्रीकृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद श्रीकृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे सशरीर ही अपने धाम को लौट गए। महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा, महाराज ने कहा कि जो भी जीवात्माओं का बहुसंख्यक होना है उसका समापन भी भगवान की महालीला है।
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