सिवनी। पौथी पढ़ने वाले ही संत नहीं हो सकते है, केवल माला धारण करने वाले संत नहीं है। एक साधारण व्यक्ति भी संत हो सकता है। संत होना स्वभाव से नहीं, शरीर से नहीं, मन से होना चाहिए। जिस व्यक्ति के हृदय में समाज के कल्याण करने की भावना आ जाए, जिस व्यक्ति के मन में परोपकार करने की भावना आ जाए वह प्रत्येक व्यक्ति संत कहलाता है। उक्ताशय की बात ब्रह्मलीन स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज के शिष्य बनारस से आए हितेन्द्र शास्त्री ने ग्राम खैरीकला (मुंगवानी) में जारी श्री शिव महापुराण कथा एवमं पार्थिवेश्वर पूजन के चौथे दिन मंगलवार को श्रद्धालुजनों से कही।
शास्त्रीजी ने आगे कहा कि जब तक इस शरीर में पूर्व जन्मों का पाप बसा रहेगा तब तक हमें भगवान की कृपा नही मिलती। पूजन करते मन जब निर्मल हो जाए, किसी के प्रति ईष्या न रहे। जो सदा एक सा रहता है उसे भगवान की प्राप्ति होती है।
उन्होंने आगे बताया कि मनुष्य तन एक बार ही मिलता है इसलिए इसका सद्पयोग करते हुए भगवान का भजन करते रहना चाहिए। भगवान प्राप्ति के लिए कर्ममय यज्ञ की अपेक्षा तप करना चाहिए। जप यज्ञ से बढ़ कर ध्यान यज्ञ है। ध्यान किसी एक का किया जाता है। ध्यान किसी चैतन्य का किया जाता है। ध्यान अपने आराध्य का अपने इष्ट का किया जाता है और ध्यान करने में कहीं कोई विघ्न नहीं आता है।
शास्त्री जी ने आगे बताया कि जब हमारे मन को काम मिल जाएगा भगवान का ध्यान करते रहेंगे, भगवान के लीलाओं का स्मरण करते रहेंगे, भगवान कार्यो का स्मरण करते रहेंगे। भगवान के सौंदर्य का, भगवान की लीलाओं का तो वही धीरे-धीरे ध्यान बन जाता है और ध्यान के बाद समाधि की स्थिति बन जाती है।
सूत जी महाराज बतला रहे हैं कि घर में पूजन करने से श्रेष्ठ है कि हम केवल और केवल जप करें जप करने से हमारे मन, बुद्धि चित्त हमारी जो ज्ञानेंद्रिय है यह परमात्मा से जुड़ने का प्रयास करते हैं और यदि जप भी नहीं हो पता है तो माला लेकर ध्यान बतलाया गया है। इसलिए भगवान का ध्यान करना चाहिए। आप जहां जिस अवस्था में है उसी अवस्था में भगवान का ध्यान हो सकता है।
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