सिवनी। जो अपने साथ साथ दूसरों का भी कल्याण करता है वह परमयोगी है।सबको अपनी आत्मा मानलो तो किसी का किसी से बैर नही होगा। उक्ताशय के उद्गार गीता मनीषी पूज्य निर्विकल्प स्वरूप जी के मुखारविंद से सप्तदिवसीय श्रीमद्भगवद्गीता जयन्ति के विश्राम दिवस पर प्रवाहित हुए।
प्रवचन माला की श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि द्वैत बुद्धि के द्वारा दूसरे का तिरस्कार होता है लेकिन जहाँ अद्वैत बुद्धि आ जाए तो सबमे अपनत्व की भावना आ जाती है।खाते समय किसी दिन यदि अपनी जवान कट जाए तो कोई भी हथौड़ी लेकर दांत तोड़ने नही बैठ जाता क्योकि वहाँ अपनत्व है अद्वैत है।
इसी तरह प्राणिमात्र में अद्वैत बुद्धि जगाने के लिए अर्जुन को माध्यम बनाकर भगवान ने भगवद्गीता सुनाया।चंचल मन को अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में लाया जा सकता है। शास्त्रों का बार बार पठन श्रवण मनन निदिध्यासन करना ही अभ्यास है। वैराग्य से अभय की प्राप्ति होती है।इस प्रसङ्ग को विस्तार देते हुए पूज्य ब्रम्हचारीजी ने गणेश गीता का उल्लेख कर बताया कि भगवान गणेश ने राजा वरेण्य को मन को वश में करने के लिए पांच बाते बताई।
1अतिदुक्खम,अत्यधिक दुःख आ जाने पर मन में वैराग्य आ जाता है।2वैराग्यम,संसार से हटकर मन ईश्वर में लग जाए।3भोगो से वितृष्णा, भोगो की इच्छा न हो तो मन शांत हो जाता है।4गुरुः प्रसादः,सद्गुरु यदि कृपा करदें तो मन शांत हो जाता है।5सत्संगः,सत्संगी व्यक्ति का मन दुस्सङ्गि की अपेक्षा ज्यादा शांत रहता है इसलिए हमे सत्संग करना चाहिए।
कृष्ण की चर्चा सुनना चाहिए ।जो भक्तो के दोषो को कर्षण करके निर्मल बना अपना लेते हैं उन्हें कहते हैं कृष्ण।जिसकी एकमात्र सत्ता है और आनन्द स्वरूप है वह है कृष्ण।पूज्य ब्रम्हचारीजी ने आगे बताया सबसे बड़ा दोष है अज्ञान जिसे ज्ञान के द्वारा दूर किया जाता है। गीता आत्मविद्या है इसी को ब्रम्हविद्या भी कहते हैं।उन्होंने आगे बताया कि योगभृष्ट पुरुष का कभी नाश नही होता शंकराचार्य जी के अनुसार नाश का मतलब हीन जन्मों की प्राप्ति।योगभृष्ट पुरष स्वर्गादि उत्तम लोको में बहुत वर्षो तक निवास करके पुनः शुद्ध आचरण वाले श्रीमानों के घर जन्म लेते हैं ।और जहाँ से उनकी साधना छुटी थी दूसरे जन्म में अनायास ही उसका मन उस और आकृष्ट होकर पिछले जन्म में जो कमियां रह गईं थीं उन्हें दृढ़ता से दूर कर साधना करके अपने लक्ष्य परमसिद्धि को प्राप्त कर लेता है।बम्हचारी जी ने बताया जैसे राजा भरत अंत समय में हिरण का ध्यान करने से हिरण और उसके बाद ब्राम्हण बने किन्तु अपने पूर्व जन्म का ज्ञान भूले नही।
भगवान ने अच्छे कार्य करने वालों के लिए पुरुस्कार स्वरूप स्वर्ग और बुरे कार्य करने वालो के लिए दण्ड स्वरूप नर्कों का निर्माण किया है।अंत सुधरा तो सब सुधर जाएगा।ब्रम्हचारीजी ने आगे बताय कि आत्म तत्व को जाने बिना शास्त्रों के पढ़ने का कोई मतलब नही।जो भगवान का साक्षात्कार कर लेता है वही योगी है।जो श्रद्धावान हैभजन करता हैभगवान को आत्मरूप से जानकर उनमे मन लगाता है भगवान कहते हैं वह मुझे परम प्रिय है।आत्मसंयम का उपदेश भगवान ने स्वयं दिया है मन पर नियंत्रण कैसे किया जाता है वही मार्ग भगवान ने यहाँ बताया है।जीवन में आने वाली समस्याओं को भी भगवदस्वरूप देखने पर वे समाधान में परिवर्तित हो जाती हैं।
इस बात को ब्रम्हचारीजी ने एक दृष्टान्त के माध्यम से समझाया कि एक बार कोई सन्यासी किसी गाँव के बाहर एक वृक्ष नीचे ठहर गए वहाँ से गुजर रहे एक वक्ति ने बताया कि इस पेड़ पर एक भयंकर प्रेत रहता है इसलिए आप यहाँ रात्रि में नही रुकना,सन्यासी ने हा तो कह दिया लेकिन भजन करने बैठा तो कब रात गहरी हो गई उन्हें समय का पता ही न चला चारो ओर घना अँधेरा हो चुका था उन्हे याद आया यहाँ तो प्रेत रहता है वह नही आया,उसने जैसे ही सोचा वहाँ वह प्रेत प्रकट हो गया अब क्या था उन्होंने उसे ही भगवान का रूप मानकर उसकी प्रार्थना स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी प्रेत जितना ज्यादा डराए वह और ज्यादा भजन करने लगे ऐसा करते करते सुबह हो गई आखिर में प्रेत को ही वहाँ से जाना पड़ा और सन्यासी भी अपने गन्तव्य की ओर चले गए। जहाँ कही भी रहो सभी कर्मो को भगवान को समर्पित करके निश्चिंत हो जाओ सब कुछ भगवान की प्रसन्नता के लिए करो तो सारे कर्म बन्धन छूट जाएंगे।
यह भगवान की वाणी है जिसे आत्मसाध करके मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है। इसी के साथ आज गीता जयन्ति समारोह आनंद पूर्वक सम्पन्न हुआ परम् पूज्य ब्रम्हचारीजी ने गीता पराभक्ति मण्डल और श्रोताओं को साधुवाद आशीर्वाद दिया।
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