सिवनी। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज में अनेक लीलाएं की। नंदालय में गोपियों का तांता लगा रहता है। हर गोपी भगवान से प्रार्थना करती है, कि किसी न किसी बहाने कन्हैया मेरे घर पधारें। जिसकी भगवान के चरणों में प्रगाढ़ प्रीति है, वहीं जीवन्मुक्त है। उक्त आशय की बात नगर के शिव शक्ति मंदिर परिसर राजपूत कॉलोनी टैगोर वार्ड में जारी श्रीमद् भागवत कथा में मंगलवार को कथावाचक पंडित नीलेश शास्त्री ने श्रद्धालुजनों से कहीं।
उन्होंने आगे कहा कि दीपोत्सव पर्व में देवराज इंद्र की पूजा के स्थान पर पर्यावरण के रक्षक तथा जल वर्षाकारक पर्वतों तथा प्रकृति के पूजा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बाबा नंद माता यशोदा एवं सभी ग्वाल-बालों को प्रेरित करते हैं। प्रसंग को पर्यावरण संरक्षण से जोड़कर बाल विदुषी ने रोचक ढंग से प्रस्तुत किया।
हम परम्पराएं निभाते हैं, उस पर तर्क नहीं करते। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र से ही हमारी संस्कृति और सभ्यता जुड़ी है, और जीवित है। यदि हम इन्हीं परम्पराओं को नहीं निभाएंगे तो हमारे पास क्या शेष बचेगा, इसका आंकलन आप खुद कर सकते हैं। यही परम्पराएं हमारा गौरव हैं। हमें उन्हें निभाना चाहिए।
श्रद्धालुओं को जरासंध के मायने समझाते हुए कहा कि जरा का मतलब होता है बुढापा और संधि का मतलब होता है मिलन या जुड़ना। जिस तरह जरासंध और भगवान श्रीकृष्ण के बीच 17 बार युद्ध हुआ था। ठीक उसी तरह हर व्यक्ति के जीवन में जरासंध आता है। पहला जरासंध यानि बुढापे की दस्तक तब आती है। जब उसके कान के बगल के बाल सफेद हो जाते हैं, तो वह उन्हें कृत्रिम तरीके से काला कर यह मान लेता है कि उसने जरासंध रूपी बुढापे को कुछ समय के लिए दूर धकेल दिया है। पर जब जरासंध यानि बुढापे का दूसरा हमला होता है तो फिर आंखों की दृष्टि कमजोर हो जाती है, तो व्यक्ति उससे बचाव के लिए लेंस लगाता है। इसी तरह अंत में जरांसध रुपी बुढापा जब हमला करता है, तब उनके साथ काल आता है, पर वह उससे पीछा नहीं छुड़ा पाता है। हरि नाम के सुमिरन से ही वह उस भय से मुक्त हुआ जा सकता है।




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