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सिवनी। एक एक कण में हम परमात्मा का दर्शन करते हैं। बुद्धि में कुतर्क नहीं होना चाहिए। जब तक हमारे मन में तृष्णा बनी रहती है तब तक सुख-शांति नही मिलती यह बात ग्राम-परासपानी, केवलारी में जारी भगवती नवदुर्गा प्राणप्रतिष्ठा शतचंडी महायज्ञ एवं श्री रामकथा में दंडी स्वामी श्री सदानंद सरस्वती महाराज ने श्रद्धालुओं से कथा के तीसरे दिन रविवार को कही।
उन्होंने आगे कहा कि पुत्र तीन प्रकार के होते हैं जो पुत्र पिता की इच्छा जानकर उनका कार्य, सेवा करता है उत्तम पुत्र कहलाता है। जो पुत्र पिता की आज्ञा के बाद उनका कार्य करता है वह मध्यम पुत्र कहलाता है और कुछ ऐसे भी होते हैं जो पिता द्वारा दिए गए आदेश के बाद भी वे पिता का कार्य नहीं करते ऐसे पुत्र अदम कहलाते हैं।
धर्म के पालन के लिए पत्नी का होना जरूरी है। विवाह होने के बाद यज्ञ में पुरूष आहुति देता है, पत्नी नही। लेकिन यज्ञ की आहुति में जो घी की आहुति दी जाती है उस घी को पत्नी देखती है तभी वह घी हवन के योग्य होता है। धर्मपत्नी का पूजा पाठ, यज्ञ में विशेष महत्व होता है।
विश्वामित्र जी का अयोध्या आगमन की कथा में बताया कि एक दिन धर्मात्मा राजा दशरथ पुरोहित तथा बंधु बांधव के साथ बैठकर पुत्रों के विवाह के विषय में विचार कर रहे थे उसी समय उनके यहां महा तेजस्वी महा मुनि विश्वामित्र पधारे वे राजा से मिलना चाहते थे उन्होंने द्वारपालों को अपने आने की सूचना दी द्वारपालों ने राजा दशरथ से निवेदन किया उनकी बात सुनकर राजा दशरथ पुरोहित को साथ लेकर उनकी अगवानी की
असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जान आयउं नृप मोही।।
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बन मैं होड़ बनाता।।
(मुनि ने कहा) हे राजन्! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं। इसलिए मैं तुमसे कुछ मांगने आया हूं। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथ जी को मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊंगा।।
आप अपने काकपच्छधारी,सत्यपराक्रमी, शूरवीर, जेष्ठ पुत्र श्री राम को मुझे दे दें यह मुझसे सुरक्षित रह कर अपने दिव्य तेज से उन विघ्नकारी राक्षसों को नाश करने में समर्थ हैं। श्रीराम के सामने आकर वे दोनों राक्षस कीसी तरह ठहर नहीं सकते। इस रघुनंदन के सिवा दूसरा कोई पुरुष उन राक्षसों को मारने का साहस नहीं कर सकता। राजन ! आप पुत्र विषयक स्नेही को सामने ना लाइये।
मैं आपसे प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि उन दोनों राक्षसों को इनके हाथ से मरा हुआ ही समझिये। सत्य पराक्रमी श्री राम क्या है- यह मैं जानता हूं। महातेजस्वी वशिष्ठ आदि अन्य तपस्वी भी जानते हैं। राजेंद्र! यदि आप इस भूमंडल में धर्मलाभ और उत्तम यश को स्थिर रखना चाहते हो तो श्रीराम को मुझे दे दीजिए। मुझे राम को ले जाना अभीष्ट है ।
ये भी बड़े होने कारण अब आसक्ति रहित हो गये हैं अतः यज्ञ के अवशिष्ट दस दिनों के लिए आप अपने कमलनयन श्री राम को मुझे दे दीजिए। आप ऐसा कीजिए जिसमें मेरे यज्ञ का समय व्यतीत ना हो जाय।
सुनी राजा अति अप्रिय बानी ह्रदय कंप मुख दुति कुमुलानी।।
चौथेंपन पायउं सुत चारी। बिप्र भजन नहीं कहेहू बिचारी।।
इस अत्यंत अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय कांप उठा और उनके मुख की कांति फीकी पड़ गई (उन्होंने कहा)- हे ब्राह्मण! मैंने चौथे पन में चार पुत्र पाये हैं, अपने विचार कर बात नहीं कही।।
हे मुनि! आप पृथ्वी, गौ, धन और खजाना मांग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूंगा दे और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता मैं उसे भी एक पल में दे दूंगा। आगे स्वामी जी ने सीताराम विवाह की कथा सुनाई।













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